जहां कन्या को पूजने की प्रथा है। पर नारी को माता ,बहन ,व पुत्री समान व्यवहार की परंपरा है । वहां कन्या भ्रूण हत्या ,दहेज हत्या, बलात्कार इत्यादि जैसे, महिला अपराध , संपूर्ण समाज को दोषी ठहराते हैं। कालातीत अवधियों से सभी समाजों में , अच्छे- बुरे कर्म सदा व्याप्त रहे हैं, किंतु समय विशेष में जब नकारात्मक कर्मों और उसके परिणामों की व्यापकता बढ़ जाती है ,तो सभी को जागरूक होने की आवश्यकता पड़ जाती है । सैकड़ों सालों की दासता से ग्रसित समाज में , महिलाओं के प्रति बर्बरता से भयभीत हो , कन्या भ्रूण हत्या पनपने लगी , तो, आधुनिक सुख सुविधा के लालच ने दहेज हत्या को बढ़ावा दिया और इंटरनेट के विस्तार ने अशिक्षा और अभद्रता के चलते, बच्ची से बूढ़ी तक उम्र की , सभी सीमाएं तोड़ते हुए , बलात्कार में पाशविकता की भी हद पार कर दी ।
सभ्य समाज कहे जाने वाले हम लोग ,अभी भी बेटे – बेटी के प्रति दोहरे मापदंड अपनाने से दोषमुक्त नहीं हुए हैं। हम लोग, सारे उपदेश सारी शिक्षाएं किशोरावस्था प्राप्त कर रही लड़की को तो देते हैं , किंतु इसी अवस्था में लड़के को स्त्री सम्मान और स्त्री गरिमा का पाठ पढ़ाना भूल जाते हैं । और तो और, जाने-अनजाने लड़कियों को लेकर होने वाले मजाकों का हिस्सा भी बन जाते हैं । लड़कियों के वस्त्रों पर तो टिप्पणी सहज है , परंतु स्वयं की सोच की परख, प्रश्न सूचक है ।
दोहरी मानसिकता से हमें उबरना होगा । परिवार, समाज की प्रथम इकाई है । पारिवारिक स्तर पर ही , सही सोच , सुसंस्कारों को , दृढ़ करना होगा ।
स्वतंत्र भारत में संविधान प्रदत्त स्त्री समानता ने ,महिलाओं के प्रति सकारात्मक माहौल पैदा किया है । शिक्षा – रोजगार में समानता के अवसर हैं । छोटे परिवारों के कारण बेटियों को भी लाड – प्यार में बढ़ावा मिल रहा है । किंतु सामाजिक ताने-बाने में खुद की बेटी और दूसरे की बेटी के प्रति मानदंडों में बहुत बड़ा अंतर दिखाई देता है । महिला ही महिला की सबसे बड़ी संरक्षक हो सकती है । माता के रूप में महिला को पुत्र और पुत्री दोनों को ही सुसंस्कार देने अति आवश्यक है । फिर वह महिला भले ही किसी भी ,आय वर्ग, जाति वर्ग ,धर्म वर्ग , क्षेत्रवर्ग से संबंध रखती हो । हमारे सामाजिक परिदृश्य में, सामान्यतया महिला की पुरुषों ( जैसे पति ,पिता, भाई …आदि) के सामने बहुत मजबूत स्थिति नहीं होती। किंतु माता के रूप में ,पुत्र – पुत्री ,”मां” के आंचल से ही बंधे होते हैं । यहां “मां” को एक “महिला” का उत्तरदायित्व भी वहन करना ही होगा ।
स्कूलों में भी हर स्तर पर , महिला सम्मान और स्त्री गरिमा के अभ्यास आवश्यक है । यहां भी अधिकांशतः महिलाएं ही विद्यार्थियों को शिक्षित कर रही हैं । शैक्षिक एवं बौद्धिक क्षमताओं को निखारने के साथ-साथ , लगातार 12वीं कक्षा तक ( लगभग 14 वर्षों तक ) पारिवारिक संस्कारों को भी अभ्यासित करवाना, दकियानूसी विचार नहीं , अपितु स्वस्थ मानसिकता वाले समाज की नींव है । झुग्गी बस्तियों में, स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से, स्त्री – पुरुषों द्वारा, सम्मिलित रूप से, न केवल बच्चों में अपितु बड़ों में भी स्त्री गरिमा और सम्मान को प्रतिस्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए । यह वह वर्ग है , जहां जीवन जीने की मूलभूत जरूरतों को पूरा करना ही एक चुनौती है , वहां इंटरनेट और मोबाइल, उनकी अतृप्त इच्छाओं के आसमान और वास्तविकता की गहरी खाई के मद्देनजर आसानी से , दिग्भभ्रमित कर देता है, और उनमें से कुछ, विकृत मानसिकता के चलते ,जघन्य अपराध कर देते हैं ।
प्रचलित उपभोक्तावादी संस्कृति में नारी का चित्रण सम्मान के रूप में कम , बल्कि वस्तु के रूप में अधिक हो रहा है। इस दिशा में संपन्न वर्ग को भी सोचने – समझने के अलावा मजबूती के साथ कुछ करने की आवश्यकता है । स्त्री को स्वयं को अबला नहीं, बल्कि सबला , समर्थ और शक्ति के रूप में पहचाना होगा । जागरूकता , सजगता , शिक्षा , स्वाभिमान, आत्मरक्षा, आत्मनिर्भरता ,सौम्यता, नैतिकता आदि गुणों की तुला में स्वयं को तोलना होगा । बेचारगी ,अनभिज्ञता, लोभ, लालच को भी त्यागना होगा ।
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