उत्सव और अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र , उधोग क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र, संगठित क्षेत्र, असंगठित क्षेत्र, आदि , उत्पादन . व्यापार , उपभोग , अर्थात मांग व पूर्ति, सरकारी नियामक या बाजार आधारित नियामक , ढांचागत सुविधाएँ या पांचतारा सुविधाएँ, स्त्री – पुरुष , मालिक – मज़दूर, आमिर – गरीब, यह सब मिल कर ही एक अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं ! राजकोषीय नीति व् मौद्रिक नीति बचत या क्रय शक्ति का उपयोग और किसी भी रूप में मुद्रा का ध्यान में रखकर किया जाने वाला कार्य अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है।

दीपोत्सव , दुर्गा पूजा , गुरु पर्व , ईद , क्रिसमस, ओणम, पोंगल , इत्यादि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड की हड्डी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. अर्थात यह आमिर गरीब का भेद मिटा कर अपने अपने तरीके से अपने अपने समय पर व्यापक रूप से मनाये जाते हैं उद्यमी, व्यवसायिक और ग्राहकी गतिविधयां अपने चरम पर होती हैं, लगभग पूरे वर्ष को निर्धारित कर देती हैं. बाजार की शक्तियां यथा उत्पादन , क्रय विक्रय इत्यादि मांग-पूर्ति के चक्र को संतुलित करती हुई राजनीति, धर्म, जात-पात , ऊँच – नीच जैसे बेबुनियाद अवरोधों को नष्ट करके भारत की अर्थव्यवस्था को सदृढ़ बनती हैं अर्थव्यवस्था के लिए. १९३६ में विश्व मंदी दौर के ब्रिटिश अर्थशात्री श्री ज.म. कायेस के मॉडल के दृष्टिगत , अन्य अतिरिक्त आर्थिक गतिविधयों के साथ साथ यदि वृहत गरीब तबके की कटी शक्ति में वृद्धि की जाए तो , मुद्रा का संचालन इस स्तर पर अपना गुणात्मक प्रभाव छोड़ेगा , उदहारण के लिए आजके प्रचारत्मक युग और उपभोगात्मक संस्कृति के चलते यह मज़बूत क्रय शक्ति विहीन वर्ग अपनी ज़रूरतों को अतिसिमित करता है लेकिन जैसे ही उसकी क्रय शक्ति उसे इजाज़त देती है वह तुरंत मांग पूर्ति सिद्धांत को प्रभावित करता है।

मांग बढ़ने पर पूर्ति संचालित करने वाली शक्तियां ( रोज़गार , उद्योग आदि ) सक्रिय हो जाती हैं , फिर यह चक्र धीरे धीरे वृहत्तर होता जाता है और अर्थव्यवस्था और जीवनस्तर पर सकारत्मक प्रभाव छोड़ता है भारत जैसे विशाल देश में जहाँ साधन संपन्न तो बहुत छोटा वर्ग है जब की साधन विहीन वर्ग बहुत बड़ा है ऐसे वार्षिक उत्सवों को ध्यान में रख कर कुछ विशेष नीतियों के माध्यम से यदि इस वर्ग की क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा किया जाये तो निश्चित रूप से सामाजिक जीवन स्तर और राष्ट्रिय अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा सिमित साधन संपन्न वर्ग ही जब इन विशेष उत्सवों के माध्यम अर्थव्यवस्था को स्रद्ढ़ बनाता है।

तो असीमित साधन विहीन वर्ग को थोड़ा भी संपन्न करके उसका व्यापक स्तर पर गुणात्मक प्रभाव स्वतः ही अर्थव्यवस्था पर परिलक्षित हो सकता है . उदाहरण के लिए जन – धन योजना के तहत , जीरो बैलेंस के बावजूद भी २० करोड़ खातों के माध्यम से ही २६३५५.१ हज़ार करोड़ रूपये इन खतों में इकढ्ढे हो गए स्पष्ट है की बड़ी संख्या का गुणत्मक प्रभाव निश्चित रूप से असरकारी सिद्ध होगा पश्चिमी देशों में संगीत समारोह भी वहां की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं, वहां की सरकारें ऐसे विभिन्न इवेंट्स को प्रोत्साहन दे रही हैं क्योंकि इन इवेंट्स से जुड़े हुए सर्विसेज और उत्पादनों से रोज़गार का सृजन होता है और लोग रचनात्मक , सकारत्मक गतिविधि में व्यस्त होते हैं। अलग तरह की आर्थिक गतिविधियों राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को सम्बल प्रदान करती हैं।

पश्चिमी सभ्यता के लोग आश्चर्यचकित हैं की भारत में किसी भी उत्सव में , मेले में धार्मिक मान्यताओं के माध्यम से राष्ट्र का समाज बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता है, छोटे बड़े , अमिर गरीब, स्त्री पुरुष का भेद किये बगैर और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अपना योगदान सुनिश्चित करता है।