वर्षो से चली आ रही विकास की सुस्त चाल और कम्प्यूटर क्रांति से पहले की मानसिकता के चलते, बुलेट ट्रैन और स्मार्ट सिटी जैसी अवधारणाओं उतपन्न होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार भारतीय नागरिकों द्वारा उठाई हा रही ‘दोहरी कर’ व्यवस्था को अगर इकहरी व्यवस्था में बदलने की बात को जाये तो तथाकथित विशेषज्ञों को तुरंत तर्क होगा को विकास पंगूहो जायेगा ?
इतने वर्षो से विकास को पैरोकार मणि जाती रही है “दोहरी कर व्यवस्था” के बावजूद प्रति वर्ष घटे की अर्थव्यवस्था ही बढ़ती चली आ रही है और तो और “करो” द्वारा एकत्रित आय कितने हो घोटालो में डूबती जा रही है। समानांतर कर से कर चोरी काले धन मई भी इजाफा हो रहा है। कर चोरी रोकने के लिए बड़े-बड़े कदम विज्ञापनों पर करोड़ो का खर्च , “कर” एकत्र करने का लम्बा चोदा जटिल संस्थागत धनचे का घरच और भी न जाने क्या – क्या।
सेस, वाट, टोल टैक्स, एक आम भारतीय नागरिक अपनी साधारण सी आय में से कितने “कर” सरकार को दे देता है। सोचने का विषय है
कर्मचारी सबसे पहले अपने चेतन में से “आयकर” देता है भले ही उस की ‘ आय ‘ उसके परिवार की जरूरते पूरी भी कर पा रहा हो या नहीं , सामाजिक स्तर पर भी उसके व्यक्ति गत स्तर की सुरक्षा पर पाये या नहीं, आकस्मिक बाधाओं से स्वयं और परिवार को बचाने की क्षमता रखती हो अथवा नहीं, प्रगतिशील समाज और विकसित होने की दिशा में बढ़ रहे राष्ट्र की नव पीढ़ी अर्थात स्वयं के बच्चो की आकांक्षाओं और क्षमताओ को पोषित करने की क्षमता रक्खति हो या नहीं। किन्तु उस कर्मचारी को “आयकर” तो देना ही होगा क्यूंकि वह सरकारी दस्तावेजो, दर्शनीय (दिखाई देता) आयकर डे कर्मचारी है।
अगर मंदी के दौरान या किसी कारणवश वह कर्मचारी बेरोज़गार हो गया हो तो बात अलग है और स्पष्ट है की वह ‘ आयकर ‘ नहीं देगा और यह सबको मान्य भी होगा किन्तु इस बेच उसका और उसके परिवार के खर्च के बारे में भी क्या किसी को कोई सरोकार होगा ? इतने सालो ‘ जिन्हे ‘ आयकर ‘ दिया है क्या उन्हें भी ? कदापि नहीं ?
- कर्मचारी कुछ खरीदता है तो टैक्स
- कुछ पहनता है तो टैक्स
- कुछ खता है तो टैक्स
- कहीं जाता है तो टैक्स
- कहीं रहता है तो टैक्स
कुछ मनोरंजन कहता है तो टैक्स आदि ये सब किन के अतिरिक्त टैक्स सरकार को ही दे रहा है पर फिर भी सामान्य सुविधाए नहीं मिलती मतलब यह है की अगर वह कमा रहा है तो भी टैक्स और खर्च कर रहा है तब भी टैक्स।
खर्च कर रहा है तब वह स्वं को संतुष्ट भी कर अहा है उस वक़्त टैक्स देना इतना बुरा महसूस नहीं होता किन्तु मेहनत की कमाई में से, पारिवारिक जरुरतो को रोक कर, जब वह “आयकर” देता है और फिर सरकारी घोटाले और उपव्यय होता है तो निशांधे वह काफी कष्ट करी होता है और फिर चतुर लोगों द्वारा कर चोरी के हत्कंडे अपनाये जाने शुरू होते है। वो क्यों न प्रगतिशीलता के चलते, भारत में भी, नै सोच को अपनाते हुए आयलर मुक्त अर्थव्यवस्था की सुरुआत की जाती।
किन्तु इसके साथ ही सरकार द्वारा विकास हेतु धन इकट्ठा करने के उदेश्ये से १० लाख प्रतिवर्ष से अधिक आय वालो को इस बजट में अपनी अनुमानित कर राशि’ अपने गप्प अकाउंट या कोई नया अकाउंट में ट्रांसफर करवा दी जाये ताकि व्यक्ति का पैसा व्यक्ति के नाम ही रहेगा और सरकार के पास काम / विकास के लिए फण्ड इकठा होगा।
नवभारतनिर्माण नई उमीद व नई सोच के साथ।
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