एक और प्रिवी पर्स (धारा 370) का अवसान

15 अगस्त 1947 के बाद विभिन्न रियासतों के विलय के साथ भारत एक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।

“सर्वे भवंतु सुखिनाः, सर्वे संतु निरामया”, जैसी मानव – कल्याण की कामना एवं “वसुधैव कुटुंबकम” की अवधारणा से ओतप्रोत, सनातन संस्कृति का वाहक है, “भारत-वर्ष” हिमालय का मुकुट धारण किए हुए भूखंड के, पांव पखारता सागर है जहां, वहां ऋषि-मुनियों के ज्ञान तप में, संपूर्ण जगत के अंधकार को मिटाने की शक्ति है प्राचीन ऐतिहासिक कुलीन सभ्यता के अवशेष, गौरव का भाव उत्पन्न करते हैं। प्राचीनतम वेद, शास्त्र, ज्ञान, साहित्य, कला आदि के विपुल भंडार, आज भी स्थान स्थान पर दृष्टिगोचर होते हैं। वह भारतवर्ष, अपनी ही कुछ कमजोरियों और एकता की कमी की वजह से लगभग 1000 वर्षों से आक्रांताओं का शिकार बनता गया। अट्ठारह सौ सत्तावन से 1947 तक जब संपूर्ण भारत में एकता के सूत्र के रूप में स्वतंत्रता की मांग उठने लगी तो, 1947 में बंटवारे के साथ, इस विशाल भूखंड के रहवासियों ने स्वतंत्रता प्राप्त की और

15 अगस्त 1947 के बाद विभिन्न रियासतों के विलय के साथ भारत एक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। संविधान के माध्यम से भारत के सभी नागरिकों को, बिना किसी भेदभाव के, समान अधिकार दिए गए। विलय की गई रियासतों के उत्तराधिकारियों को विशेषाधिकार स्वरूप सरकार द्वारा अतिरिक्त धनराशि ,प्रिवीपर्स के रूप में प्रतिवर्ष प्रदान करने की व्यवस्था बनाई गई। 1969 तक यही विशेषाधिकार व्यवस्था सरकार को एक भार प्रतीत होने लगी। फलतः तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कठोर निर्णय लेते हुए, इस वर्ग विशेष के विशेषाधिकार को समाप्त किया। इस वर्ग विशेष का तात्कालिक असंतोष और विरोध बड़ी चुनौती नहीं बन सका क्योंकि आम जनता का इससे कोई खास सरोकार नहीं था। इसी प्रकार धारा 370 का, वास्तव में जम्मू कश्मीर के सामान्य नागरिकों के साथ कोई खास सरोकार नहीं था बल्कि यह, मात्र एक राजनीतिक हथियार था । जिसका उपयोग वहां की स्थानीय जनता को बरगलाने एवं कुछ परिवारों के राजनैतिक संरक्षण के लिए किया जाता रहा ।

धारा 370 के संदर्भ में, वर्ष 2019 की 5 और 6 अगस्त को, संसद में हुई चर्चा के दौरान, उजागर विभिन्न तथ्यों के, माध्यम से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो गया कि पिछले 70 वर्षों से ना केवल जम्मू कश्मीर की सामान्य जनता अपितु संपूर्ण भारत की आम जनता को भी धारा 370 के बारे में जानकारी कम और भ्रम ज्यादा थे उदाहरण के लिए 1947 में पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में आए भारत के किसी भी हिस्से में बसने वाले (जम्मू कश्मीर के अलावा) डॉ मनमोहन सिंह और श्री इंद्र कुमार गुजराल तो भारत देश के प्रधानमंत्री भी बन गए। जबकि पाकिस्तान से 1947 में आकर जम्मू कश्मीर में बसने वाले लगभग 20 लाख लोगों को नागरिकता तक की नागरिकता तक नहीं मिली। मतदान करने का अधिकार तक नहीं मिला। क्या कारण था? स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि धारा 370 का प्रयोग साजिश के तहत तो नहीं किया जा रहा था? कश्मीर घाटी के छोटे और कम जनसंख्या जनसंख्या वाले क्षेत्र के लिए 47 विधानसभा क्षेत्र सीट बनाई जाती हैं और जम्मू और लद्दाख के कहीं बड़े अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र के लिए कुल मिलाकर मात्र 43 विधानसभा सीट बनाई जाती हैं । इस बात का कोई कारण समझा सकता है सामान्य नागरिकों को? जम्मू कश्मीर की कोई लड़की राज्य के बाहर विवाह करे तो उसकी नागरिकता खत्म हो जाती है। उसके बच्चों की दावेदारी भी खत्म हो जाती है। जबकि यदि जम्मू कश्मीर की लड़की दूसरे देश पाकिस्तान के व्यक्ति से शादी करती है तो उसकी नागरिकता पर कोई आंच नहीं आती बल्कि उसके पति को यहां की नागरिकता भी मिल जाती है।

धारा 370 को सहेजने वाले और समर्थन करने वाले नेता क्या सामान्य जनता के आगे भी, अपने तर्कों से इन नियमों का औचित्य सिद्ध कर सकते हैं?

यह सुनकर अत्यंत दुख होता है कि भारत की पढ़ी लिखी समझदार जागरूक जनता को भी यह लोग, अपनी वोट बैंक की राजनीति के मोहपाश में बांधकर भ्रमित करते हैं। सामान्य जनहित या देश हित के बजाय, केवल परिवार हित और संकुचित दलगत हितों तक ही सीमित रहते हैं। केंद्र सरकार की ओर से राज्य विकास के लिए दी जाने वाली अपार धन राशि, गांव गरीब तक पहुंच ही नहीं पाती। बस राजनीतिक गलियारे में बंट बंटाकर खत्म हो जाती है। इस कारण अमीर गरीब की खाई बढ़ती जाती है और असंतोष और अलगाव की लौ सुलगती रहती है।

पूरे भारत देश में जनधन खाते खुले ,उज्जवला गैस मिली, आयुष्मान योजना, बीमा योजना इत्यादि अनेक योजनाओं में से केवल वही योजनाएं लागू हो सकी जो वहां के स्थानीय राजनीति के लिए पोषक हो । अन्यथा तो वहां की गरीब जनता मालूम भी नहीं कर सकती कि सरकार उनकी भलाई के लिए क्या योजनाएं लेकर आ रही है । भारतीय जनमानस की भावना के अनुरूप , दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति के बल पर , आखिरकार धारा 370 का उन्मूलन हो गया । एक तिरंगे के नीचे ,सब एक समान। एक संविधान के तहत सभी के समान कर्तव्य भी अधिकार भी । क्यों किसी को कोई विशेषाधिकार प्राप्त हो ?

लोग असंतोष व विरोध जाहिर तो करेंगे पर अगर सरकार जल्दी ही जम्मू-कश्मीर के दूरदराज गांवों में गरीब और अशांत इलाकों में अपनी सकारात्मक सक्रियता दिखाती है। जैसे बतौर प्राथमिकताएं, पीपीपी मॉडल के जरिए स्कूल, अस्पताल, रोजगार, बाजार इत्यादि के माध्यम से स्थानीय लोगों को इन्वॉल्व करके उनके जीवन स्तर को उन्नत करती है। ढांचागत सुविधाएं सुधारती है। तो स्थानीय राजनीतिज्ञों, व अलगाववादियों की नकारात्मकता एवं असंतोष व विरोध को स्थानीय स्तर पर सहयोग नहीं मिलेगा। परिणाम स्वरूप स्वत: ही भारत सरकार का यह निर्णय सही साबित होगा। कश्मीर में इन दिनों चप्पे-चप्पे पर सेना है। सेना के सहयोग से, प्रशासन की संपूर्ण सहभागिता से, गांव – गरीब का उत्थान कम समय सीमा में तीव्रता के साथ किया जा सकता है। ताकि स्थानीय लोगों को महसूस हो सके कि, 70 सालों से 370 की कैद से मुक्ति मिली है। वे सब, आन बान शान से भारत सरकार का गुणगान करने को उद्यत हो।