मध्यप्रदेश के, मुरैना जिले के, मुरैना कस्बे से, लगभग 25 किलोमीटर और ग्वालियर से, लगभग तीस-पैतीस किलोमीटर दूर, पदावली ग्राम के निकट, “बटेश्वर” अपने अंदर, सदियों पुरानी विरासत समेटे हुए, चंबल के बीहड़ों में अवस्थित होने के कारण, विभिन्न माफिया संस्कृति से, अछूता एवं सुरक्षित रहा है।
खजुराहो से भी, लगभग 300 वर्ष पहले अर्थात तेरह सौ वर्ष पूर्व, वास्तु वैभव को बढ़ावा देने वाले, “गुर्जर व प्रतिहारा शासकों” द्वारा, यहां बटेश्वर में, “कलात्मक मंदिरों” का समूह बनवाया गया था। जो कभी, किसी भयंकर भूकंप के परिणाम स्वरुप , पूरी तरह से, पत्थरों के ढेर और खंडहरों में तब्दील हो गया तथा समय चक्र के चलते, पेड़ों के जंगल में , लगभग ढक सा गया । शायद इसी कारण, यह क्षेत्र डाकुओं की शरण स्थली के रूप में जाना जाता रहा है ।
यद्यपि “बटेश्वर”, 1920 से, संरक्षित क्षेत्र सूची में था। किंतु डाकूओं के भय से, कभी बहुत अधिक गंभीरता से नहीं लिया जा सका। 21वीं सदी की शुरुआत में, स्थानीय नेपथ्य की गूंज पर, ध्यान केंद्रित करते हुए, “भारतीय पुरातत्व विभाग” द्वारा, भारतीय संस्कृति के पुरोधा के रूप में, कर्मठता, दृढ़ता एवं अथक प्रयासों के फलस्वरूप, वर्तमान पीढ़ी को, लगभग 200 मंदिरों का परिसर, “बटेश्वर” के रूप में दिग्दर्शित हुआ है।
भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) भोपाल सर्किल के, तत्कालीन अधीक्षक श्री के के मोहम्मद ने, एक रोचक और महत्वपूर्ण घटना का जिक्र किया, कि जब वह अपने साथियों के साथ, बटेश्वर के मंदिर में, पत्थरों और खंडहरों से, कुछ समझने का प्रयास कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि, कोई दाढ़ी वाला आदमी, वहां पर बीड़ी सिगरेट पी रहा है। तत्काल उन्होंने उसे टोका कि, वह इतने पवित्र स्थान पर, बीड़ी सिगरेट कैसे पी सकता है ? वास्तव में वह आदमी, इनामी डाकू निर्भय सिंह गुर्जर था। भारतीय पुरातत्व विभाग दल के सदस्य, उसे यह समझाने में सफल रहे, कि वे लोग कोई मुखबिर या पुलिस के आदमी नहीं है। (ए एस आई ) भारतीय पुरातत्व विभाग , इस पवित्र स्थल का ,पुनर्निर्माण करना चाहता है , जो कि, आप ही के पूर्वजों, “गुर्जर प्रतिहारा” वंशजों द्वारा, बनवाया गया है। इन बातों से संतुष्ट होकर, सभी डाकू सहयोग करने के लिए, तैयार हो गए। डाकुओं द्वारा, इन मंदिरों के निर्माण में, संरक्षण व सकारात्मक योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण है।
2005 से, भारतीय पुरातत्व विभाग भोपाल द्वारा, यह अकल्पनीय व अति कठिन कार्य प्रारंभ हुआ। प्राचीन भारतीय शिल्प एवं वास्तु के सिद्धांत मुख्यत: इन दो संस्कृत शास्त्रों में समाहित हैं, एक “मनसारा शिल्पशास्त्र” (चौथी शताब्दी) तथा दूसरे “मयामता वास्तु शास्त्र” (सातवीं शताब्दी) श्री मोहम्मद, इन्ही शास्त्रों के ज्ञान के आधार पर, अपने साथियों के साथ, मंदिरों को उनके मौलिक स्वरूप में, स्थापित करने की, कोशिश कर रहे थे।
प्रतिहार शासक “वास्तुविद एवं वास्तुकला” आदि के पोषक व प्रश्रयदाता थे पहाड़ी की तलहटी पर बने, व प्राचीन वास्तु वैभव की, उत्कृष्टता से परिपूर्ण, यह “मंदिर समूह” विहंगम दृश्य उत्पन्न करते हैं। यहां अधिकांश मंदिर शिव के हैं। कुछ भगवान विष्णु के हैं। बहुत से मंदिरों में, शिव-विवाह समारोह संबंधित मूर्तियां दृष्टिगोचर हैं। शिव मंदिर में, शिवलिंग के पीछे, कालिदास रचित “कुमारसंभवम्” में वर्णित, शिव द्वारा पार्वती के कर कमलों को, स्पर्श करती युगल मूर्ति, वास्तुशिल्प के प्राचीन गौरव को, उदघोषित करती दिखाई देती है । सरस्वती की वीणा वादन करती प्रतिमा, नवजात कृष्ण को दुग्धपान कराती देवकी, नृत्य करते शिव, कलश लिए गंगा – यमुना आदि के रूप में, “मूक पत्थर”, आठवीं सदी में किए गए, श्रम व कला की कहानी, कहते नजर आते हैं।
खुदाई के दौरान ही, परिसर में जल – कुंड का मिलना और फिर स्वत: ही, धीरे-धीरे पानी से भर जाना, इस पूरे विचार एवं कार्य की प्रामाणिकता भी सिद्ध करता है। बटेश्वर में इन 200 मंदिर समूह के धूल – धूसरित खंडहरों में से, अब तक लगभग 100 मंदिर पुनर्जीवित हो चुके हैं। बटेश्वर का मंदिर परिसर, लगभग 25 एकड़ में विस्तारित है। स्थानीय लोगों के अनुसार भगवान शिव के एक नाम, “भूतेश्वर” के आधार पर यहां का नाम “बटेश्वर” पड़ गया है
चंबल के बीहड़ों में, पत्थरों के ढेर से, चुन-चुन कर, “हुबहू”, आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य , “गुर्जर प्रतिहार शासकों” द्वारा निर्मित, “मंदिर समूह” को पुनर्जीवित करने के लिए, भारतीय पुरातत्व विभाग, स्थानीय व राष्ट्रीय मीडिया, जिला व पुलिस प्रशासन तथा शहीद पुलिस अधिकारी, श्रमिकों, मिस्त्रियों आदि के प्रति, आने वाली पीढ़ियां कृतज्ञ रहेंगी।
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