परासक्ति

फिर मित्र के मित्र की उदारता भी तो काबिले-गौर थी कि कार की चाबी भी हमें सौंपी जा रही थी। अब हम तो ठहरे साधारण इंसान ही।

जाने किसका मुंह देखा था, उस दिन, हमने सवेरे-सवेरे शायद हमने अपनी आंखें दर्पण के आगे ही खोली होंगी। तभी तो ऐसी मूर्खता कर बैठे। पर इसे कोरी नासमझी भी, तो नहीं कहा जा सकता। हमारे घर में, ” बड़ी सी कार ” का खड़ा होना असभ्यता की निशानी भी तो नहीं। किन्तु हां, यदि हम, ऊपरी मन से ही सही, अपने मित्र के मित्र की कार को, हमारे छोटे से घर के, बड़े से अहाते में, “सुरक्षित पार्क” करने के लिए मना कर देते, तो असभ्य जरूर कहे जा सकते थे।

फिर मित्र के मित्र की उदारता भी तो काबिले-गौर थी कि कार की चाबी भी हमें सौंपी जा रही थी। अब हम तो ठहरे साधारण इंसान ही। हमेशा के लिए न सही, कुछ दिनों के लिए ही, अपनी न सही, मित्र के मित्र की, “बड़ी गाड़ी” ही हमारे घर की शोभा तो बढ़ाएगी ।

रोज न सही, यदा-कदा ही, पूरे परिवार के साथ बड़ी कार में घूमने का, शौक पूरा करने का, लोभ संवरण हम भी नहीं कर सके। अपनी खुशी को थोड़ा छुपाते, एहसान जताते, अपनी स्वीकृति प्रदान कर ही दी थी।

स्वीकृति प्रदान करने की देर थी कि, उसी समय मित्र के मित्र, मित्र सहित हमें परिवार के साथ, अपनी सुख सुविधा संपन्न कार में बैठाकर, “कार” की विशेषताएं बखान करते हुए “लॉन्ग ड्राइव” पर ले गए। प्रफुल्लित मन से, हमें अपने निर्णय की सराहना करने के लिए बाध्य होना ही पड़ा। अनायास ही मुख- मंडल पर, दर्प की छाया प्रदीप्त होने में देर न लगी। इतनी “महंगी कार” में जो घूम रहे थे, और उस वक्त तो, यह एहसास भी धुंधला पड़ रहा था कि, कार हमारी अपनी नहीं है।

खैर! दो दिन से उठते ही, सवेरे – सवेरे चाय पीने अथवा अखबार पढ़ने का उपक्रम गाड़ी के आसपास होना ही स्वाभाविक भी था। पड़ोसियों के दिल में ईर्ष्या का भाव, आना भी असामान्य नहीं था आज के जमाने में, हर किसी को ऐसे लोग मिलते भी कहां हैं, जो अपनी 40 – 50 लाख की गाड़ी, मित्र के मित्र के भरोसे ही छोड़ सकें। निश्चित तौर पर, कुछ बात तो हम में भी है ही। आत्मप्रशंसा, हम पर हावी हो चली।

यह अलग बात है कि, मित्र के मित्र की, भीड़ भरी रिहायशी में, एक से बढ़कर एक कारों के जमावड़ों में, उनकी गैरमौजूदगी में, इसकी कोई पूछ ना हो, कोई कद्र न हो।

अड़ोस पड़ोस के बच्चे, उत्सुकतावश गाड़ी को छूने की चेष्टा में रहते, किंतु हमारी कड़ी नजरों से पार पाना, उनके लिए टेढ़ी खीर समान था।

परिवार की इच्छा थी, कि कहीं घूमने चला जाए। किंतु यदि अभी से इस इच्छा पर, संयम न रखा जाए तो, दो-तीन किलोमीटर की औसत देने वाली इस गाड़ी से हफ्ते भर में ही, फाके पड़ने की नौबत आ जाएगी। भई, घर के आगे मुफ्त में महंगी गाड़ी खड़ी है तो क्या, हमारी तनख्वाह तो वहीं की वहीं है। फिर पेट्रोल की कीमत तौबा-तौबा!

अतः निश्चय किया गया, कि रविवार को ही अपना शौक पूरा किया जा सकता है ।अब सबके लिए खास हिदायत, कि कोई भी गाड़ी को छूने की चेष्टा ना करें, पड़ोसी या घर वासी। घर के लोगों को, इस बहाने इस जिम्मेदारी से बांधना भी था। पूर्ण रूप से न सही, एक हद तक ही, अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने में, उन्होंने भी कमी नहीं की।

अभी रविवार के लिए 2 दिन शेष बचे थे। किंतु परिवार के छोटे-बड़े अपने – अपने हिसाब से, घूमने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करते हुए, अपनी प्राथमिकताओं के पक्ष में, तर्क – वितर्क करते हुए , घर को विवाद मंच का रूप दे रहे थे । हम भी निर्लिप्त भाव दर्शाते हुए, इस सबसे बेखबर होने का अभिनय करते हुए, नेपथ्य में, इस वाद – विवाद का आनंद उठाने से, चूक नहीं रहे थे।

लीजिए साहब! रविवार आ ही गया, “ख्वाबों सी सजीली कार” को चमका कर, हम लोग तरो-ताजा हो ही रहे थे, कि बड़ी हड़बड़ाहट में, हमने मित्र महोदय को आते देखा। कारण जानने में देर न लगी, कि मित्र के मित्र का कोई निहायत जरूरी काम अचानक आ पड़ा है, इसलिए उन्हें कार की इस समय सख्त जरूरत है। यहां तो कार की चाबी देने से इनकार करने का, तो क्या कहा जाए, आनाकानी करने का भी, प्रश्न न था। मित्र के मित्र का विनम्र आग्रह था कि, जब कभी यदा-कदा उनके और हमारे मित्र को, मित्र की या खुद की जरूरत के लिए, कार की आवश्यकता हो तो अवश्य दे दें। वैसे भी, 4 दिन में आज, यह मांग पहली दफा हो रही है। हमने बरबस प्रसन्नता का भाव चेहरे पर लाते हुए, कार की चाबी मित्र के हवाले कर दी और दबी जबान से समय सीमा की भी जानकारी ले ली। जवाब में जब, “मात्र आधा घंटे” की बात हुई, तो चेहरे पर असीम संतोष की रेखा दृष्टिगोचर होने में समय न लगा। मन में विश्वास हो गया कि अब हम परिवार को किया गया वायदा निभा सकेंगे।

आधे घंटे में परिवार ने अपनी तैयारियों को फिनिशिंग टच दे दिया और फिर इंतजार की घड़ियां समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगे । घंटा डेढ़ घंटा तो चलिए हम ने किसी ना किसी तरह समझा-बुझाकर मना लिया, पर यहां तो कार को गए, 3 घंटे से ज्यादा हो गए । फिर परिवार तो क्या, हम पर भी झुंझलाहट के साथ-साथ निराशा और उदासी की परतें छाने लगी । भलमनसाहत, सादगी आदि जैसे गुणों-अवगुणों पर टीका-टिप्पणी के साथ, सब के क्रोध का शिकार होते, तानों की मार सहते, हम भी सब के साथ, आज के कार्यक्रम की मिट्टी पलीत होते देख, चुपचाप अपने दैनिक कार्यक्रमों में व्यस्त होने की चेष्टा करते रहे।

रात के 10:00 बजते – बजते तो हम पर चिंता, और सवार हो गई, कहीं हमारे मित्र किसी विपदा में तो नहीं फंस गए। फोन तो उनका, सुबह से ही, पहुंच के बाहर आ रहा था। ऐसे में किया भी क्या जा सकता है। सिवाय इंतजार के।

नींद आ भी रही थी, और आ भी, नहीं पा रही थी । अजीब स्थिति थी। बड़ी मुश्किल से, पहली झपकी लगी थी कि, भटाक की आवाज के साथ, घर का गेट, बड़ी जोर से खुला और धड़धड़ाती हुई, कार बड़ी शान से नियत स्थान पर खड़ी हो गई। रात के 12:00 बजे इतनी तेज आवाज से, घरवाले तो क्या बाहर वाले भी, अचकचा कर उठ गए। फिर हमें देख, वक्त की नजाकत समझते हुए, यथा स्थान हो लिए । इससे पहले कि, हम अपनी खामोशी तोड़ पाते, कुछ बोल पाते, मित्र ने तुरत – फुरत, मात्र औपचारिकता वश, क्षमा मांग, अपने घर की राह पकड़ी और “कार की चाबी” भी हमारी पकड़ में न आ सकी। हमारी इस “परासक्ति” की अवस्था में, अचानक “गांधी- दर्शन” की यह धारणा अंतः स्थल में जागृत हो उठी कि, पराई वस्तु में अपनी आसक्ति जोड़ना, आन-बान-शान को, दांव पर लगाने जैसा है।