पुरातन , निरंतर , विस्तार,
वृषभ स्वरूपा, पौराणिक से प्रत्यक्ष,
सहस्त्राब्दियों की साक्षी, सभ्यताओं की जननी,
वैदिक सभ्यता, सिंधु घाटी सभ्यता या मोहनजोदड़ो – हड़प्पा,
मानव – मात्र के उत्थान – पतन को संभालती हुई
शांत तो मां के आंचल जैसी , उफनती तो आसमां गुजांती,
मजहबी दीवारों को तोड़, भौगोलिक सीमाओं को छोड़,
निर्मल , निश्छल, अविरल,
पीढ़ियों को सींचती आ रही है,
सिंधु नदी।
लगभग 6 -7 हजार वर्षों से, पौराणिक काल व ऋग्वेद में वर्णित, “सप्तसिंधु”, परुषनी, शुतुद्री, असकिनी, वितास्ता, विपास (रावी, सतलुज, चिनाब, झेलम, व्यास ) सरस्वती, सिंधु – सिन्धु सभ्यता और हिंदू संस्कृति की पोषक बनी। सिंधु नदी के धरातल पर ही, हिंदू संस्कृति पनपी। भारतवर्ष की पश्चिमी सीमा पर, बहती सिंधु को, फारसी में “स” के स्थान पर “ह” बोलने के कारण, हिंदू प्रचलित हो गया और सिंधु नदी के तट पर बसा हुआ क्षेत्र हिंदुस्तान कहलाया । कैलाश पर्वत की, मानसरोवर झील के निकट से, अरब सागर तक फैली, सिंधु की उर्वर धरा पर, मानव रूपी अंकुरित बीज ने, शनै: शनै: लहलहाना सीखा। जगदंबा सदृशा इस जीवनदायिनी सिंधु की आशीशों के साथ, मानव ने, काल-कवलित थपेड़ों के बीच, गिर-गिर कर, उठना और बढ़ना सीखा ।
ऐतिहासिक रूप से, पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता, प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। मानव विकास के दौर में, सिंधु नदी की सभ्यता के उत्खनन में, जो अवशेष व प्रमाण प्राप्त हुए हैं, वह उस काल के, सिंधु पुत्रों की उन्नत बौद्धिक सोच, संयोजन व उत्कृष्टता का प्रतीक है। विश्व स्तर के इतिहासकारों एवं पुरातत्त्ववेत्ताओं का मानना है कि, ईसा से 3000 से 7000 साल पूर्व, जो सभ्यता थी, वह वैदिक सभ्यता कही गई है। क्योंकि यही समय, वेदों की रचना का माना गया है, तथा यह सभ्यता सिंधु नदी के किनारे विकसित थी। इस समय मानव पूर्ण रूप से विकसित भी था, शासन व्यवस्था सुदृढ़ थी। धर्म का अपना महत्व था। महिलाएं शिक्षित भी थी, सम्मानित भी थी। लोपामुद्रा , गार्गी , पालमा आदि विदुषियां वेदों की ज्ञाता थी। कृषि, पशुपालन मुख्य व्यवसाय था । सोना, चांदी ,तांबा, कांसा इत्यादि धातुओं का प्रयोग होता था। बैल गाड़ी, घोड़ा गाड़ी, नाव आदि यातायात के प्रमुख साधन थे। इतनी उन्नत व्यवस्था सिंधु के आंगन में अवस्थित थी ।
काल की गति के कारण, सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भी, फिर से सिंधु सृजन जारी रहा। इन 6 – 7 हजार वर्षों में फिर से, “सिंधु” ने, अपने आंचल को विस्तृत करते हुए, वात्सल्य भरे प्यार और दुलार से, अपनी संतानों को आधुनिक सभ्यता तक प्रशिक्षित कर दिया है ।
वर्तमान में एशिया की, सबसे बड़ी नदी के रूप में,” सिंधु नदी” तिब्बत से निकलकर , “भारत” को पहचान देकर , पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बनी हुई है ।
भारत – पाकिस्तान के बंटवारे के कारण, 1960 में, सिंधु के पानी को लेकर समझौता हुआ। पाकिस्तान के सामान्य नागरिकों के हितों के मद्देनजर, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत, भारत ने, अपनी संस्कृति और सभ्यता की जननी पर, अधिकार न जताकर, केवल भाव -श्रद्धा, सत्कार – आभार, व्यक्त करते हुए, ममता का उद्गार प्राप्त किया।
सिंधु वात्सल्य अनुभूति करते हुए 1996 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी जी ने सिंधु दर्शन किए। इसके बाद 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने सिंधु दर्शन महोत्सव का उद्घाटन किया। तब से प्रतिवर्ष जून के दूसरे पखवाड़े में जम्मू कश्मीर के संस्कृति और पर्यटन मंत्रालय द्वारा, स्वतंत्र भारतीयों को, सिंधु की महत्ता, निश्छलता, निर्मलता और अद्वितीयता की अनुभूति के लिए, “सिंधु दर्शन महोत्सव” का आयोजन किया जाने लगा।
हर, भाषा ,जाति, क्षेत्र इत्यादि के भेदभाव को दूर करते हुए, अपने उद्गम की मूल संस्कृति से जुड़ने के लिए, “लेह लद्दाख” में, “सिंधु तट”, के पर देश के सभी राज्यों की सांस्कृतिक धारा, अपनी प्राचीनतम व उन्नत सभ्यता की धरा पर, मनमोहक छटा बिखेरती है। सिंधु दर्शन महोत्सव में, प्रतिवर्ष उत्साही पर्यटकों की, भागीदारी भी बढ़ती जाती है। पर्यटक यहां की सुंदरता और शुद्धता से तो, अभिभूत होता ही है इसके अलावा सिंधु की गौरवशाली परंपरा को भी, आत्मसात करता हुआ गौरवान्वित होता है।
इस बार “लेह – लद्दाख” क्षेत्र को , केंद्र शासित प्रदेश बनने के कारण, इस महोत्सव का और अधिक धूमधाम से आयोजन करने का प्रयास था। किंतु कोविड-19 के कारण, सभी राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक गतिविधियों पर अंकुश लग गया है। लेकिन “सिन्धु नदी” की पौराणिकता और महत्ता पर लेश मात्र भी असर नहीं पड़ा है।
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