गणेशोत्सव – जन अभिव्यक्ति

भारतीय संस्कृति में गणेश जी का स्थान बहुत ऊंचा माना जाता है। गणेश जी ने, अपने माता - पिता, "शिव-पार्वती जी" को उच्चतम स्तर पर रखकर और उनकी प्रदक्षिणा करके, उनके प्रति नतमस्तक होकर, सभी देवों में , प्रथम पूज्य होने का आशीर्वाद प्राप्त किया।

सनातन संस्कृति प्रवाह है , प्राकृतिक ,सामाजिक एवं बौद्धिक परंपराओं का , जिसमें जनकल्याण एवं विश्व बंधुत्व का भाव भी समाहित है ।

भारतीय संस्कृति का मूल भाव मानव कल्याण है , जो भाव और प्रेम से दूसरों को अपना बनाते हैं , ना कि धन और बल को अपना माध्यम बनाकर अन्य संस्कृति या धर्म को, बदलकर जोर- जबरदस्ती करते हैं ।

दुर्भाग्य से , भारत की सौम्य संस्कृति को , आक्रांताओं ने, लगातार दूषित किया , और 1000 सालों से धन और बल का प्रयोग करके जबरदस्ती भारतीय नागरिकों का, धर्म परिवर्तन करवाया गया।

समय-समय पर, भारतीय सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए, विभिन्न स्थानीय शासकों , धर्म आचार्यों इत्यादि ने, अपने-अपने स्तर पर , आक्रांताओं से युद्ध करके , भारतीय संस्कृति की रक्षा की है । किंतु इतिहास , हमें लगातार , यह भी सबक देता रहा है, कि भारतीय संस्कृति के सूत्रधारों में, बहुधा एकता का, अभाव रहा और इसीलिए आक्राताओं के, कुत्सित प्रयासों को सफलता मिल जाती और फिर बड़े स्तर पर, विदेशी संस्कृति और धर्म- परिवर्तन को, स्थानीय लोगों पर थोपा जाता।

भारतीय संस्कृति में ऋगवेद और पुराणों में वर्णित, गणेश महिमा के आधार पर , भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को, गणेश जी का जन्म उत्सव मनाया जाता है और उन्हें सुविधानुसार पारीवारिक या सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिष्ठित किया जाता है।

गौरी पुत्र गणेश जी की जन्म कथा के अनुसार, मां पार्वती जब स्नान करने जा रही थी तब उन्होंने अपने उबटन से , गणेश को उत्पन्न कर के, द्वार पर बिठाकर आदेश दिया, कि किसी को भी अंदर न आने दें। भगवान शंकर, जब अंदर जाने लगे तो गणेश ने उन्हें भी रोक दिया । बार-बार समझाने पर भी जब गणेश ने माता पार्वती की आज्ञा को शिरोधार्य रखा, तो वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ शिव ने क्रोधित होकर उनका मस्तक धड़ से अलग कर दिया। मां पार्वती को जब यह पता चला , तो वे रौद्र रूप में आ गई । ब्रह्मा जी ने उपाय बताया कि, किसी नवजात की मां , अगर नवजात की तरफ पीठ किए हुए है , तो उसका सिर लाकर , इस बालक पर लगा दो ताकि इसे पुनर्जीवन मिले। शिवगणों ने तलाश करने पर एक हथिनी को नवजात की तरफ पीठ किए हुए पाया । फलत: उस नवजात का शीश प्रत्यारोपित कर दिया। इस प्रकार भगवान शंकर ने, मां पार्वती के क्रोध को शांत किया । गणेश जी को बुद्धि के देवता के रूप में अधिष्ठित किया ।

भगवान गणेश के स्वरूप के प्रतीकात्मक अर्थ भी निकाले जाते हैं। जैसे बड़ा सिर बुद्धि का प्रतीक ,बड़े कान किसी बात को धैर्य के साथ सुनना , आंखें एकाग्रता का प्रतीक है , मुंह कम बोलने का प्रतीक है , बड़े पेट से आशय है कि अच्छी और बुरी बातों को पचाना ।

भारतीय संस्कृति में गणेश जी का स्थान बहुत ऊंचा माना जाता है। गणेश जी ने, अपने माता – पिता, “शिव-पार्वती जी” को उच्चतम स्तर पर रखकर और उनकी प्रदक्षिणा करके, उनके प्रति नतमस्तक होकर, सभी देवों में , प्रथम पूज्य होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। यही कारण है, कि भारतीय जनमानस किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत में, गणेश पूजा का विधान करता ही है।

दिल्ली में औरंगजेब की सल्तनत के समय, शिवाजी के शासन- काल में, गणेश उत्सव को, सार्वजनिक स्तर पर मनाने के साक्ष्य हैं जो कि सनातन संस्कृति को संबल प्रदान करने का प्रमाण भी है। पेशवाओं ने भी समय-समय पर इसे प्रोत्साहन दिया।
किंतु अंग्रेजों का शासन आने पर फिर गणेश उत्सव पारिवारिक स्तर पर सिमट गया था।

1892 में पुणे में बाहु साहब लक्ष्मण जवाली जी ने सार्वजनिक स्तर पर उत्सव मनाने की कोशिश की।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने, अपनी पत्रिका “केसरी” के माध्यम से , गणेश जी की सर्वग्राह्यता और सनातन संस्कृति अनुयायियों की एकता के लिए , प्रचार – प्रसार करके एक धरातल तैयार किया । गणेशोत्सव को बहुत ,जोर-शोर से और व्यापक रूप से मनाने के लिए लोकमान्य तिलक ने बहुत भी प्रयास किए। गणेशोत्सव के दौरान होने वाले, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्वराज और स्वाभिमान जगाने का काम किया। राष्ट्रीय विचारों के संरक्षण में जन-अस्मिता को बल मिलने लगा । धीरे-धीरे गणेश उत्सव में जनभागीदारी और जन सहभागिता ने व्यापक रूप लेना शुरू किया ।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गणेशोत्सव धार्मिक उत्सव होने के साथ-साथ राष्ट्रीय अस्मिता का भी पोषक बनने लगा तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सकारात्मक भूमिका के रूप में प्रतिष्ठित भी हुआ ।

स्वतंत्र भारत में भी गणेश उत्सव, नित प्रति अपनी जनभागीदारी बढ़ा रहा है। यह उत्सव केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है अपितु संपूर्ण भारत में बुद्धिदाता गणेश जी के स्वरूप , रिद्धि सिद्धि सहित प्रतिष्ठित है।

वर्तमान समय में , आधुनिकता के दम्भ में, कई बार उत्सव की मूल भावना की , अपरोक्ष रूप से अवहेलना हो जाती है, तथा दिखावा और बनावट अधिक मुखर हो जाती है तथा पर्यावरण संरक्षण में भी चूक हो जाती है।

सनातन संस्कृति उत्सव धर्मिता के माध्यम से मानव कल्याण की पोषक है । मूल रूप से पर्यावरण संरक्षक है । परंपराओं से अमीर- गरीब और जात-पात के भेदभाव के बिना, आर्थिक गतिविधियों को भी संचालित करती है । ये सांस्कृतिक उत्सव, जन समुदाय को सही दिशा दिखाने का कार्य भी करते हैं और इसके साथ ही साथ जन उत्साह और अभिव्यक्ति का भी सुंदर प्रदर्शन करते हैं।