उम्मीद का दामन थामे

मैं, शहतूत का वृक्ष हूं। जो गर्मी के चढ़ते - चढ़ते फिर से पीले से पड़ते पत्तों में, घिरा रह जाऊंगा। जैसे तैसे मानसून का समय निकालकर, सर्दी का मौसम ठूंठ बनकर गुजारता हूं।

मैं ,उम्मीद का दामन थामे, कब से राह निहार रहा हूं। मैं ,भरा पूरा, लदा हुआ, इंतजार में समय निकाल रहा हूं । साल के 365 दिनों में से , यही तो 40 50 दिन होते हैं । जब छोटे बड़े ,मेरे आगे पीछे डोलते हैं। उनकी उम्मीदें, उनकी कोशिशें ,और फिर उनकी तृप्ति, मेरे अंदर एक सुखद अहसास भर देती है। इन 40 50 दिनों के एक-एक दिन में, मैं, पूरे 365 दिन जी लेता हूं।

पर इस बार, मैं, तरस रहा हूं। चारों और कुछ उदासी सी छाई हुई है। लोग अपने-अपने घरों में कैद से नजर आ रहे हैं। बाहर की तरफ आवाजाही बहुत ही संकुचित सी है। मेरे पास भी कोई कोई कभी-कभी ही आ रहा है। लदे,पके टीन पर टपकते, फलों की आवाज भी अपना जादू नहीं दिखा पा रही है।

मैं, शहतूत का वृक्ष हूं। जो गर्मी के चढ़ते – चढ़ते फिर से पीले से पड़ते पत्तों में, घिरा रह जाऊंगा। जैसे तैसे मानसून का समय निकालकर, सर्दी का मौसम ठूंठ बनकर गुजारता हूं। बसंत ऋतु, नव आशा का संचार करती है, और फिर मुझ ठूंठ में, नव- कोंपल फूट पड़ती है। हर नव – कोंपल एक-एक शहतूत को, अपने आंचल में समेटे रहती है। उत्साहित ऊर्जा और मौसम के अनुग्रह से नवरात्रि आने तक यह शहतूत पक पक कर अपनी सहज मिठास भर कर समाज को तृप्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं। और मेरे आस-पास बच्चों , बड़ों के मेले से लगने शुरू हो जाते हैं।

कोई पेड़ पर चढ़ता है तो चढ़ता चला जाता है, और मेरी शिखा को छूने की चेष्टा करता है और पके फल सहेजता जाता है।मैं ,उम्मीद का दामन थामे, कब से राह निहार रहा हूं। मैं ,भरा पूरा, लदा हुआ, इंतजार में समय निकाल रहा हूं । साल के 365 दिनों में से , यही तो 40 50 दिन होते हैं । जब छोटे बड़े ,मेरे आगे पीछे डोलते हैं। उनकी उम्मीदें, उनकी कोशिशें ,और फिर उनकी तृप्ति, मेरे अंदर एक सुखद अहसास भर देती है। इन 40 50 दिनों के एक-एक दिन में, मैं, पूरे 365 दिन जी लेता हूं।

पर इस बार, मैं, तरस रहा हूं। चारों और कुछ उदासी सी छाई हुई है। लोग अपने-अपने घरों में कैद से नजर आ रहे हैं। बाहर की तरफ आवाजाही बहुत ही संकुचित सी है। मेरे पास भी कोई कोई कभी-कभी ही आ रहा है। लदे,पके टीन पर टपकते, फलों की आवाज भी अपना जादू नहीं दिखा पा रही है।

मैं, शहतूत का वृक्ष हूं। जो गर्मी के चढ़ते – चढ़ते फिर से पीले से पड़ते पत्तों में, घिरा रह जाऊंगा। जैसे तैसे मानसून का समय निकालकर, सर्दी का मौसम ठूंठ बनकर गुजारता हूं। बसंत ऋतु, नव आशा का संचार करती है, और फिर मुझ ठूंठ में, नव- कोंपल फूट पड़ती है। हर नव – कोंपल एक-एक शहतूत को, अपने आंचल में समेटे रहती है। उत्साहित ऊर्जा और मौसम के अनुग्रह से नवरात्रि आने तक यह शहतूत पक पक कर अपनी सहज मिठास भर कर समाज को तृप्त करने के लिए तैयार हो जाते हैं। और मेरे आस-पास बच्चों , बड़ों के मेले से लगने शुरू हो जाते हैं।

कोई पेड़ पर चढ़ता है तो चढ़ता चला जाता है, और मेरी शिखा को छूने की चेष्टा करता है और पके फल सहेजता जाता है।

तो कोई लाठी-डंडों से फलों को लेता है, उसे मुझे चोट पहुंचाने का, एहसास तक नहीं होता है। धीमी – तेज आवाजों का कोलाहल, संगीत की सुमधुर तान सा प्रतीत होता है। क्योंकि इसी समय, मैं स्वयं को, पूर्ण चैतन्य जागृत अवस्था में पाता हूं। अपने पत्तों और फलों के साथ समाज के आकर्षण का केंद्र बन जाता हूं। समाज में कोविड 19 की आहट मुझे भी सुनाई दे रही है। प्राकृतिक अथवा प्राकृतिक ,कोरोनावायरस से बचने के लिए, सभी ने स्वयं को, घरों में ” लॉक डाउन ” के चलते कैद कर लिया है। प्रकृति खुद को नए सिरे से, संवारने लग रही है। वह पंछी, जो वर्षों से मेरा आशियाना छोड़ गए थे। अब पुनः आकर मुझसे बतियाने लगे हैं। दुनिया भर की खबर सुनाने लगे हैं।

मन द्वंद से घिर उठता है। पशु ,पक्षी ,मानव और मशीन क्यों नहीं, अपनी – अपनी सीमा में रहते हैं। प्रकृति – सृष्टि से ,क्यों दुस्साहस करके , लड़ते – झगड़ते रहते हैं।

“लॉकडाउन ” में उनका यह संयम निश्चित ही, संतुलन बना लेगा और इस वैश्विक आपदा से विश्व को बचा लेगा कोई बात नहीं , बहुत सारे लोगों ने मेरे पास रौनक नहीं की। पर, कुछ उन लोगों ने तृप्ति जरूर प्राप्त की, जो संकोच के कारण, दूर से ही निहार कर रह जाते थे सब स्वस्थ रहें सुरक्षित रहें। अगले वर्ष उनके इंतजार में, बाकी बचे वर्ष के दिन , फुर्र से उड़ जाएंगे। फिर से , सतरंगी रौनकों के मेले लग जाएंगे मेरी उम्मीद हमेशा पूरी होगी । इसी उम्मीद मे, मैं एक शहतूत का वृक्ष।