स्त्री आंख, खुलते ही

स्त्री

स्त्री
आंख, खुलते ही
रसोई में, लग जाती है
यह नहीं वह, वह नहीं है यह
भिन्न-भिन्न भोजन, पकाती है
आगे – पीछे बच्चों के
भाग – भाग नहीं अघाती है
कंधे से कंधा मिला
संग – सजन, सुहाती है
बाजार – हाट, अतिथि – सत्कार
थकी, फिर भी मुस्काती है
इस पर भी, गर, मिला उलाहना
तो फिर, बिखर जाती है
हो, कोई वाद – विवाद
चंद्रमुखी सी, ज्वालामुखी बन जाती है
प्रेम – माधुर्य, समझ – सामंजस्य में
कली सी , निखर जाती है
गृहस्थ की, गृहस्थी को
धुरी, बन
स्त्री, ही चलाती है।