मेरे आंगन का ये पेड़

सामने खड़ी
सजी – संवरी
तरु – श्रंखला,
बादलों की तान पर
पवन की लय पर
मुस्काती – मदमाती
थिरक – थिरक रही
मन मोह रही
पर, सहसा
नज़र ठिठकी
कमरे की
खिड़की से छूती
प्रतिपल मोहती
टहनी पर,
क्यूं
ये गति, ये मस्ती नहीं
इस वृक्ष पर
सवाल, अटक गया
बाहर जाकर, देखा जब
समझ आ गया, सब
स्वतंत्र – उन्मुक्त
तरु-श्रंखला के समक्ष,
अपनी ऊंचाइयों, तक
ज़िम्मेदारी का ओढे़, आवरण
मुस्काता,डटा-खड़ा है
मेरे आंगन का
ये पेड़।